विश्लेषणः बरौदा में कांग्रेस क्यों जीती और भाजपा क्यों हारी

नई दिल्ली। भाजपा ने बिहार, यूपी और मप्र के चुनाव और उप चुनावों में चौतरफा बाजी मारी। किंतु हरियाणा में गच्चा खा गई। बरोदा उप चुनाव में भाजपा की हार का अंतर इस बार तो पिछली बार से दो गुना ज्यादा हो गया। इस चुनाव के विश्लेषण में निश्चित ही भाजपा की संवादहीनता, अहंकार, सलाहकार मंडली और नौकरशाली तथा कांग्रेस में पूर्व मंुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा और सांसद दीपेंद्र हुड्डा की लोकप्रियता और मिलनसारिता उजागर हुई है।

Analysis: Why Congress won in Baroda and BJP lost

New Delhi. The BJP swept the elections and by-elections in Bihar, UP and MP. But in Haryana, the cake was eaten. The difference of BJP’s defeat in Baroda by-election this time has been two times more than the last time. The analysis of this election has certainly exposed the BJP’s lack of communication, arrogance, advisory and bureaucratic and the popularity and sociability of former Chief Minister Bhupinder Singh Hooda and MP Deepender Hooda in the Congress.

इतनी बुरी हार

2019 के चुनाव में भाजपा प्रत्याशी योगेश्वर दत्त शर्मा 4840 वोटों से हारे थे, किंतु इस बार उनकी हार का अंतर लगभग दोगुना हो गया। कांग्रेस प्रत्याशी इंदुराज नरवाल ने योगेश्वर दत्त को चुनावी अखाड़े में 10496 मतों से पटखनी दी। योगेश्वर ने पूरा चुनाव अपने दम पर लड़ा। भाजपा के सिपहसालारों में बिखराव दिखा। भाजपा नेता अपने-अपने एजेंडे पर काम करते दिखे।

2019 के चुनाव में भाजपा और जजपा ने अपने-अपने प्रत्याशी अलग खड़े किए थे। इस बार दोनों का साझा प्रत्याशी था। फिर भी हार का अंतर ज्यादा रहा।

जातिवाद हावी रहा

भाजपा ने सुशासन और पारदर्शिता के नाम पर चुनाव लड़ा, जिसे जनता ने खारिज कर दिया।

हरियाणा के आम चुनाव की तरह इस उप चुनाव में सभी पक्षों की ओर से जातीय समीकरण खुलकर खेला गया।

निश्चित रूप से इस जाट पट्टी की इस सीट पर जाटों के बाहुल्य का लाभ इंदु नरवाल को मिला।

जातीय धु्रवीकरण लोकतंत्र के लिए खतरनाक है, लेकिन यह हरियाणा में अब भी जारी है। यह हरियाणवी समाज के लिए घातक ही सिद्ध होगा।

घोषणाएं काम नहीं आईं

भाजपा यहां लगभग 6 माह से चुनाव लड़ रही थी। मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने यहां दो महिला कॉलेज खोले, लगभग 200 करोड़ रुपए के विकास कार्यों की घोषणाएं कीं और आईएमटी खोलने एवं योगेश्वर को मंत्री बनाने की घोषणा भी की गई।

इतनी लोक लुभावन योजनाएं भी जनता ने स्वीकार नहीं कीं और विपक्ष के प्रत्याशी को जिता दिया।

भाजपा की कमियां

भाजपा की सरकार, संगठन और पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं की संवादहीनता, बिखराव, अहंकार और मौके पर गिव एंड टेक की नीति को जनता ने पसंद नहीं किया।

भाजपा के तमाम प्रयास सरकार में नौकरशाही की निरंकुशता से हुए इलाके के लोगों के घाव को भरने में नाकाम रहे। नौकरशाही के प्रति लोगों में स्पष्ट नाराजगी दिखी।

खट्टर के राजदूत एवं सांसद संजय भाटिया गोहाना में ही डेरा डाले रहे। पार्टी के कई दिग्गज जाट नेताओं ने भी कैंपिंग की और फीडबैक भी बहुत कर्णप्रिय दिए। किंतु यहां कई जाट नेता तो “निपटाने की हरियाणवी शैली” में सक्रिय दिखे।

भाजपा को अपने जाट नेताओं का तोड़ ढूंढना ही होगा। खट्टर को उनमें वह करंट भरना होगा, जो हुड्डा से पटेबाजी कर सके।

खट्टर पर दबाव

अब खट्टर विरोधी खेमा उन पर चाप बढ़ा देगा।

खट्टर निश्चित ही तपस्वी, संतमना, खांटी के स्वयंसेवक, पारदर्शी और सुशासक हैं। उनके रोम-रोम में संघ का संस्कार सिंचन है।

तथापि चाणक्यानुसार किसी राजा को उसके मंत्री और सलाहकार ही उसके उत्थान और पतन का कारण बनते हैं।

खट्टर की वंशबेल नहीं है।

उन पर कोई भ्रष्टाचार के आरोप अब तक भी न लगा पाया है और न भविष्य में लगा पाएगा।

किंतु उनकी सलाहकार मंडली में बहुत झोल है। खट्टर आसानी से विश्वास कर लेते हैं और सलाहकार घात कर जाते हैं।

खट्टर पर नजर रखने वाले बताते हैं कि विश्वास के मामले में वे कच्चे हैं।

ऐसी हजार पराजय भी मोदी और भाजपा की नजरों में खट्टर का ग्राफ नीचे न कर पाएंगी।

किंतु खट्टर के लिए यह सोचनीय प्रश्न आवश्य हैं कि वे भाजपा और मोदी को क्या दे पा रहे हैं।

पिछले विधानसभा चुनाव में जजपा की मेहरबानियों से भाजपा बाउंड्री पर कैच आउट होते बची।

अगला चुनाव थोड़ा दूर लगता है, लेकिन समय बीतते देर नहीं लगती।

अपने 6 सालों के सक्रिय शासकीय अनुभव से पुनः अपनी सलाहकार मंडली के सदस्यों की समीक्षा करके ही खट्टर महारथी हुड्डा से अगले रण में मुकाबला कर पाएंगे।

नौकरशाही के फ्रंट पर उन्हें योगी जैसी आक्रामकता लानी होगी।

कांग्रेस क्यों जीती

इंदु नरवाल कांग्रेस से ज्यादा भूपेंद्र हुड्डा और दीपेंद्र हुड्डा के प्रत्याशी बन गए थे।

बाप-बेटे ने बरोदा हल्के को खूंद डाला। गांव-गांव गली-गली हाथ जोड़े।

लोगों ने एक बार फिर से हुड्डा द्वय की विनम्रता, सरलता, मिलनसारिता और सर्वग्राह्यता का राजतिलक किया।

हुड्डा को लाभ

जीते इंदु नरवाल हैं, लेकिन यह जीत हुड्डा की कही जा रही है।

इस जीत के बाद हुड्डा ने यह सिद्ध कर दिया है कि वे हरियाणा में कांग्रेस के सशक्त खेवनहार हैं। कि जाट बेल्ट में तो उनका कोई सानी नहीं है। कि वे ही चुनाव जिता सकते हैं। कि हरियाणवी कांग्रेस में रेस के घोड़े उनके ही पास हैं।

इस चुनाव के बाद कांग्रेस और जनता में हुड्डा की स्वीकार्यता बढ़ेगी।

एक सूची वायरल हो रही है, जिसमें कहा जा रहा है कि राहुल गांधी में ट्रेक्टर यात्रा के दौरान दीपेंद्र हुड्डा को ड्राईविंग सीट पर नहीं बिठाया या फिर इंदु नरवाल हुड्डा की पसंद नहीं थे। यानि अब कांग्रेस नेतृत्व हुड्डा को कम भाव दे रहा है।

इस सूची की सत्यता जो भी हो, लेकिन हुड्डा ने कांग्रेस में जता दिया है कि “यहां के हम हैं राजकुमार।”

कहीं न कहीं यह बात दमदार दिखती है कि इंदु नरवाल की प्रत्याशा में हुड्डा की सहमति नहीं थी।

किंतु इंदुराज टिकट मिलने के बाद सबसे पहले हुड्डा के ही शरणागत हुए।

हुड्डा ने अपना न होते हुए इंदु को अपना बना लिया और यह चुनाव बहुत ईमानदार और गंभीरता से लड़ा।

हुड्डा को वह कला आती है, जो मरहूम चौ. भजनलाल में नुमाया होती थी। अपने बना लेने की कला।

 

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